Sunday, January 10, 2010

प्रतीक्षा

थाली में दीप सजा, द्वार पर वन्दनवार लगा,
साँझ से ही देहरी पर जा बैठी थी बावरी ।
अनन्त तक तकती आँखों ने,
क्षितिज को लाल होते देखा,
अंधेरे को धीरे धीरे सरक कर आते,
और तारों को एक एक करके चटखते ।
रात के साथ साथ
आँखों में कुछ गहराता गया ।
उषा के आने का सन्देश लाने वाले
झोंके के साथ ही बोझिल नींद
अभागन की पलकों पर आ बैठी
और सिर चौखट से लग गया ।
ऐसे में तुम आये बेदर्द, और आकर लौट गये.

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