शाम की छायायें
लम्बी हो धुंधला गयीं थी,
नदी के शान्त जल पर ।
नृत्य करती सी मछलियां
उछलती थी यकायक
और चीलें समेट कर पर अपने
चली जाती थी वृक्षों के कोटरों में ।
आकाश में कतरा भी न था बादल का
नीली चादर सा चमकता था वो ।
लोगों से भरी एक नाव
चली जाती थी नदी में
तालियाँ बजा कर गाते थे वे मस्त ।
और कहीं से गाय के रम्भाने की
आवाज सुनाई देती थी ।
शाम बिखेरती थी अपनी गन्ध धीमे धीमे ।
गेंदे के फूलों की एक माला
बही जाती थी नदी में
सोने सी चमकती ढलते सूरज
की रोशनी में ।
कितने सुन्दर हैं सब
और जीवन से कितने परिपूणॅ
नदी, चीलें, वृक्ष और लोग ।
Friday, January 8, 2010
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