Saturday, March 6, 2010

याद आती हो तुम

कभी तो सुबह जैसी ऊगती हो,
कभी फिर शाम जैसी
फैल जाती हो तुम ।

मेरी आवा़ज़ में ही गूंजती हो,
मेरा ही नाम बनकर
याद आती हो तुम ।

क़हीं नेपथ्य में छिपकर दिवस भर,
ढले दिन साँस बनकर
चीर जाती हो तुम ।

तुम्हारी गन्ध से सपने महकते
ठगा आश्चर्य से मैं,
मुस्कराती हो तुम ।

Saturday, February 20, 2010

समय

चटखी कली पर
गून्ज उपवन में
अटकी रही,
क्षण की एक बून्द भर
समय के मेघ पर
लटकी रही ।
घडी की सुइयाँ
इस बीच भी मगर
भागती रहीं,
सूरज की किरणें
धरती के दरवाजे
जागतीं रहीं ।

कविता का भ्रूण
गर्भ में ही पड़ा
बस टीसता रहा ,
ह्र्दय का पत्थर
पिघला तो नहीं
पसीजता रहा ।
सपनों की ओस
यादों के पत्तॉं पर
पड़ती रही,
आशा की बदली
निर्जन आकाश में
उमड़ती रही ।

समय निठुर निश्चल सा
अपनी अकड में
हिला तक नहीं ,
वर्तमान भूत से,
या फिर भविष्य से
मिला तक नहीं ।

Sunday, January 10, 2010

प्रतीक्षा

थाली में दीप सजा, द्वार पर वन्दनवार लगा,
साँझ से ही देहरी पर जा बैठी थी बावरी ।
अनन्त तक तकती आँखों ने,
क्षितिज को लाल होते देखा,
अंधेरे को धीरे धीरे सरक कर आते,
और तारों को एक एक करके चटखते ।
रात के साथ साथ
आँखों में कुछ गहराता गया ।
उषा के आने का सन्देश लाने वाले
झोंके के साथ ही बोझिल नींद
अभागन की पलकों पर आ बैठी
और सिर चौखट से लग गया ।
ऐसे में तुम आये बेदर्द, और आकर लौट गये.

तुम आओगी

वीराने में नदिया बनकर बह निकलोगी
अँधियारे में दीपक बनकर जल उठोगी।
बन्सी में सुर घोल रागिनी बिखरा दोगी
बन में गन्ध बिखेर फूल सी तुम महकोगी।
शब्द बीन कर मेरी बिखरी कविताओं के
झाड पोंछ कर और करीने से समेट कर
भरकर उनमें अर्थ उन्हें पूरा कर दोगी।

Friday, January 8, 2010

एक शाम नदी के किनारे

शाम की छायायें
लम्बी हो धुंधला गयीं थी,
नदी के शान्त जल पर ।
नृत्य करती सी मछलियां
उछलती थी यकायक
और चीलें समेट कर पर अपने
चली जाती थी वृक्षों के कोटरों में ।
आकाश में कतरा भी न था बादल का
नीली चादर सा चमकता था वो ।
लोगों से भरी एक नाव
चली जाती थी नदी में
तालियाँ बजा कर गाते थे वे मस्त ।
और कहीं से गाय के रम्भाने की
आवाज सुनाई देती थी ।
शाम बिखेरती थी अपनी गन्ध धीमे धीमे ।
गेंदे के फूलों की एक माला
बही जाती थी नदी में
सोने सी चमकती ढलते सूरज
की रोशनी में ।
कितने सुन्दर हैं सब
और जीवन से कितने परिपूणॅ
नदी, चीलें, वृक्ष और लोग ।

Thursday, January 7, 2010

उम्र

उम् ने गूँथीँ थीं यादों की लडियाँ
मखमली सपने भी उम्र ने ही उधेढ़ दिए
उम्र ने सँजोयी थी भुरभुरी यादेँ,
मुरझाये फूल भी उम्र ने ही बिखेर दिये

उम्र ने बाँधी थी रिश्तों की मेंड़,
संबधों के तट भी उम्र ने ही तोड़ दिए
उम्र ने जलायी थी आशा की ज्योति,
सपनोँ के दीपक भी उम्र ने ही फोड़ दिये

उम्र ने बसाये थे, गुड़ियों के घर,
मिट्टी के घरौंदे भी, उम्र ने ही उजाड़ दिये.
उम्र ने बोये थे भावनाओं के बीज
और नन्हें पौधे भी, उम्र ने ही उखाड दिये.

Wednesday, January 6, 2010

The first day

In the begenning of 2010, I decided to start a blog.
I am not sure how will it take shape. But that's life.
I am curious to know how it goes. Let's see.
-Pankaj.