Tuesday, December 30, 2014

मैं पिघला भी

मैं पिघला भी तुम्हारी आंच से 
बस इतना ही,  
बस इतना सा 
तुम्हारी उंगलियों  के पोर को छूता हुआ निकला 

चमकती आँख का आंसू 
हृदय के कोर से होकर ,
गले के पास ठिठका, 
फिर पलक के छोर को छूता हुआ निकला 

वो सारी रात भर बीने हुए, बिखरे हुए तारे 
मैं टांकता था पलकों पर, तभी 
एक तैरता पंछी 
सिहरती सुगबुगाती भोर को  छूता  हुआ निकला  

हमारे बीच के  रंगीन धागे 
सुलझते, तब ही 
मोहल्ले  का कोई बच्चा 
हवा में बह  रही उस डोर को छूता हुआ निकला 

No comments:

Post a Comment