Saturday, February 20, 2010

समय

चटखी कली पर
गून्ज उपवन में
अटकी रही,
क्षण की एक बून्द भर
समय के मेघ पर
लटकी रही ।
घडी की सुइयाँ
इस बीच भी मगर
भागती रहीं,
सूरज की किरणें
धरती के दरवाजे
जागतीं रहीं ।

कविता का भ्रूण
गर्भ में ही पड़ा
बस टीसता रहा ,
ह्र्दय का पत्थर
पिघला तो नहीं
पसीजता रहा ।
सपनों की ओस
यादों के पत्तॉं पर
पड़ती रही,
आशा की बदली
निर्जन आकाश में
उमड़ती रही ।

समय निठुर निश्चल सा
अपनी अकड में
हिला तक नहीं ,
वर्तमान भूत से,
या फिर भविष्य से
मिला तक नहीं ।